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    पंजाब तेजी से नया नॉर्थ ईस्ट बनता जा रहा है. और इसमें मोदी के लिए एक संदेश छिपा है

    Jodhpur HeraldBy Jodhpur HeraldSeptember 6, 2025

    बाढ़ के कारण दशकों के सबसे मुश्किल दौर में, पंजाब को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री मोदी आएंगे. अगर उनके पास बिहार दौरे का समय है, तो पड़ोसी पंजाब का एक छोटा सा दौरा क्यों नहीं?

     

    1 सितंबर को तियानजिन से लौटते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान में आए भूकंप पर शोक जताते हुए एक ट्वीट किया.

    तभी उन्हें एक ट्वीट में जवाब मिला. यह जवाब अकाल तख्त और तख्त श्री दमदमा साहिब गुरुद्वारा के पूर्व मुख्य ग्रंथी ज्ञानी हरप्रीत सिंह की ओर से था. वे सिख धार्मिक राजनीति में नेतृत्व के रूप में खुद को देखते हैं, जो शिरोमणि अकाली दल की अंदरूनी दरारों से खतरनाक रूप से टूटी हुई है. इस खतरनाक धार्मिक-राजनीतिक खालीपन में ज्ञानी जी, नवां (नया) अकाली दल के प्रमुख के रूप में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

    वे इसे अलग गुट कहलाने पर आपत्ति जताते हैं. उनका कहना है कि असल में सुखबीर सिंह बादल का अकाली दल अलग हुआ है. सिख राजनीति में तीसरी ताकत अमृतपाल सिंह का शिरोमणि अकाली दल (वारिस पंजाबदे) है. इन हालातों का खतरनाक ताकतें, खासकर आईएसआई, फायदा उठा रही हैं. फिलहाल, कृपया ज्ञानी जी का टाइमलाइन देखें.

    वे अक्सर ट्वीट करते हैं, लंबा लिखते हैं और लगभग हमेशा पंजाबी (गुरुमुखी) में. अभी उनका टाइमलाइन बाढ़ की तबाही के विजुअल्स से भरा हुआ है. “दिल्ली” (नई दिल्ली) का विरोध सिख धार्मिक राजनीति का केंद्रीय मुद्दा है और ज्ञानी जी ने प्रधानमंत्री के अफगानिस्तान वाले ट्वीट को तुरंत पकड़ा और इस बार अंग्रेजी में लिखा. उन्होंने लिखा, “माननीय प्रधानमंत्री, अफगानिस्तान के लिए सहानुभूति जताना अच्छा है, लेकिन पंजाब भी इसी देश का हिस्सा है, जहां 17 अगस्त से करीब 1,500 गांव और 3 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. पंजाब की ओर आपका ध्यान न देना बेहद दर्दनाक है.” इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को तीन पन्नों का एक पत्र भी लिखा और अपने एक्स हैंडल पर पोस्ट किया.

    अब, हमें पता है कि प्रधानमंत्री ने लौटते ही पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान से बात की और हर तरह के सहयोग का वादा किया. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान बाढ़ प्रभावित इलाकों में हैं, ज़्यादातर समय पैदल, कई बार घुटनों तक पानी में, उखड़ी हुई फसलों को देखते हुए, यहां तक कि कभी-कभी किसी पौधे को फिर से लगाने की कोशिश भी करते हुए.

    लेकिन डूबते हुए पंजाबियों के लिए यह कोई दिलासा नहीं है.

    दशकों में अपने सबसे मुश्किल वक्त में, वे अपने राज्य में प्रधानमंत्री की मौजूदगी की उम्मीद करते. भले ही वे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से हों, जिसे पंजाब में सिख आम तौर पर वोट नहीं देते. अगर प्रधानमंत्री पूरे भारत के पिता, बड़े भाई या परिवार के मुखिया जैसे हैं, तो वे यहां क्यों नहीं हैं? क्या हम पंजाबी (खासकर सिख) परिवार का हिस्सा नहीं हैं? अगर उनके पास बिहार जाने का समय है, तो बगल के पंजाब के छोटे से दौरे का क्यों नहीं?

    कुल मिलाकर, यह पहले से ही अलगाव को बढ़ावा दे रहा है, जो तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के बाद से ही पनप रहा है. सिख समुदाय के लिए यह दिल्ली के प्रति उनकी पुरानी शंका की पुष्टि करता है.

    यह दुखद है कि अब तक हमने “नज़र से दूर, दिल से दूर” वाले मुहावरे का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए किया था कि राजधानी उत्तर-पूर्व को कैसे देखती है. लेकिन अब यह बात एक ऐसे राज्य पर भी लागू होती है जो ज्योग्राफिकली नज़दीक है, राजनीतिक रूप से नाज़ुक है और रणनीतिक रूप से बेहद अहम है. वरना प्रधानमंत्री अपनी वापसी पर सबसे पहले यहीं आते.

    हमारी समझ में बीजेपी जैसी तेज़तर्रार पार्टी के दो ही कारण हो सकते हैं. पहला यह कि पार्टी और प्रधानमंत्री राज्य और उसकी सिख आबादी से खफ़ा हैं. क्योंकि तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ़ दिल्ली को घेरने वाले मुख्य रूप से वही थे. विदेशों में बैठे सिखों के अलगाववादी अभियान इस दर्द को और बढ़ाते हैं.

    लेकिन सच यह भी है कि यह पहली घटना केंद्र और राज्य सरकार (तब कांग्रेस) दोनों की ओर से राजनीतिक संवाद और विश्वसनीयता की नाकामी थी. इसी खाली राजनीतिक जगह में तरह-तरह के “किसान नेता” तीनों तरफ़ से आ गए: वैचारिक वामपंथी, धार्मिक दक्षिणपंथी और बेतुके अराजकतावादी.

    इससे केंद्र के साथ एक कड़वाहट और गुस्सा रह गया. हमें बस यही उम्मीद है कि हमारी यह व्याख्या ग़लत साबित हो. अब हम दूसरे कारण की तरफ़ बढ़ते हैं.

    यह बीजेपी सबकुछ जीतने वाली सोच रखती है. वे हर उस राज्य में जीतना चाहते हैं जहां अब तक उनकी पकड़ नहीं रही. तमिलनाडु, तेलंगाना, केरल और पश्चिम बंगाल उनकी दीवानगी बने रहे हैं. असम, त्रिपुरा और मणिपुर उन्होंने दशकों की मेहनत और आरएसएस प्रचारकों की कोशिशों से जीते. तो पंजाब क्यों नहीं.

    पंजाब की दूरी उन्हें परेशान करती है. अब तक सिर्फ़ एक बार वे यहां सत्ता में साझेदार बने थे, वह भी शिरोमणि अकाली दल के कनिष्ठ साथी के तौर पर. यह कदम अटल बिहारी वाजपेयी ने 1990 के दशक में उठाया था. मौजूदा बीजेपी नेतृत्व ने उस गठबंधन को तोड़कर पंजाब में अकेले लड़ने का फैसला किया. इसका उन्हें कोई सीट नहीं मिला लेकिन वोट प्रतिशत 2022 विधानसभा चुनाव (6.6 फीसदी) से बढ़कर 2024 लोकसभा में 18.56 फीसदी हो गया. इससे वे अपने पुराने वरिष्ठ साथी अकाली दल (13.2 फीसदी) से आगे निकल गए. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी 26-26 फीसदी पर रही.

    बीजेपी एक लगातार चुनाव लड़ने वाली सेना की तरह है और उसके नेता सोच सकते हैं कि अगर सिख वोट तीन हिस्सों में बंट जाए — शिरोमणि अकाली दल, कांग्रेस और उग्रपंथियों के बीच — और हिंदू वोट एकजुट हो जाएं, तो वह अकेले सत्ता हासिल कर सकती है. हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के जरिए जीतना, खासकर जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, पंजाब से बिल्कुल अलग है, जहां सिख बहुमत में हैं. पिछली लोकसभा चुनावों में भी अकालियों का प्रदर्शन इसलिए इतना ख़राब रहा क्योंकि उनका ठीक आधा वोट, करीब 13 फीसदी, उग्रपंथियों ने ले लिया.

    चाहे पसंद आए या न आए, पंजाब में अब उग्रपंथियों की बढ़ती लोकप्रियता एक समस्या है. अकालियों से मोहभंग बढ़ रहा है और बीजेपी को ध्रुवीकरण करने वाली पार्टी के रूप में देखा जा रहा है. अलगाववादी इसी माहौल में सक्रिय हैं और पाकिस्तानी भी इसमें खेल रहे हैं.

    कई नए यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया हैंडल बेहद चालाकी से प्रोपेगेंडा चला रहे हैं. बड़े पैमाने पर ये संदेश दे रहे हैं कि मुसलमान और सिख, दोनों एकेश्वरवादी और पंजाबी होने के नाते, उनके बीच कोई असली समस्या नहीं है. परेशानी हिंदुओं से आती है और इसलिए सिखों को “अलग तरह से” सोचना चाहिए. यह प्रोपेगेंडा पंजाबी पहचान का भी इस्तेमाल करता है, यानी साझा संस्कृति, भाषा, संगीत और सीमा पार के रिश्तों का.

    मैंने इनमें से कई देखे हैं, जिनमें कनाडा और ब्रिटेन से चलाए जा रहे कुछ लोकप्रिय पॉडकास्ट भी शामिल हैं. ये राजनीति पर बहुत चालाकी से बात करते हैं. मैंने कनाडा से एक 66 मिनट का शो देखा जिसमें एंकर पाकिस्तान एयरफोर्स के एक वेटरन और ऑपरेशन सिंदूर पर लिखने वाले लेखक से बात कर रहा था. शो बहुत परिष्कृत था. इसमें भारतीय वायुसेना की खूब तारीफ की गई, लेकिन संदेश यह था कि “छोटी और फुर्तीली” पाकिस्तानी वायुसेना ने “बेहतर” काम किया.

    पंजाब में ऐसी सामग्री खूब देखी जा रही है. आईएसआई और आईएसपीआर अपनी टेढ़ी नज़र से सिखों और पंजाब को आसान निशाना मानते हैं.

    एक राष्ट्र जो अपने इतिहास से नहीं सीखता, उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है. साठ साल पहले मिजोरम (तब असम का लुशाई हिल्स जिला) में बांस के फूल आने से चूहे बहुत ज़्यादा प्रजनन करने लगे. उन्होंने अनाज के भंडार खा डाले और लोग भूखे मरने लगे. राज्य सरकार नाकाम रही और केंद्र बहुत दूर था. इस बीच, लालडेंगा, जो हाल ही में सेना से छुट्टी लेकर आए थे, ने मिजो नेशनल फैमिन फ्रंट (एमएनएफएफ) बनाया. यह 1966 तक मिजो नेशनल फ्रंट बन गया और दो दशक तक चीन और पाकिस्तान से समर्थन पाकर हिंसक विद्रोह चलाता रहा.

    भारत वही गलती दोबारा पंजाब में नहीं कर सकता. दरअसल, एक आपदा केंद्र, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के लिए पंजाब के साथ खड़े होने का अच्छा अवसर है. राजनीतिक रूप से बीजेपी के लिए यह राज्य से एक नया रिश्ता बनाने का मौका है जो पहले कभी नहीं रहा. भारत के लिए यह जिम्मेदारी है कि वह उस राज्य और उसके लोगों के लिए सबकुछ करे जिनके प्यार और योगदान के बिना गणराज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

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