शिक्षा, आरक्षण, और सरकारी नौकरी समता और सम्मान दिलाने का लिए है लेकिन हम इससे कितने दूर हैं यह मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंके जाने और हरियाणा के IPS अफसर की आत्महत्या से साफ है. फिल्म ‘होमबाउंड’ एक सबक भी सिखाती है.
तीन बातों के मेल ने भारत में जातियों और अल्पसंख्यकों से जुड़े ऐसे मसले उभारे हैं जिन्हें वह संविधान निर्माण के 75 साल बीत जाने के बाद भी हल करने में विफल रहा है. जाति का मसला बेशक शताब्दियों पुराना है.
ये तीन बातें हैं— भारत के दलित मुख्य न्यायाधीश पर उनकी ही अदालत में जूता फेंका गया; हरियाणा में एक दलित आईपीएस अफसर ने खुद को गोली मार कर खुदकशी कर ली और यह आक्रोश भरा नोट लिख गए कि किस तरह वर्षों से उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा और उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा और बॉलीवुड के एक प्रमुख एवं प्रभावशाली फिल्म निर्माता नीरज घायवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ समृद्ध लोगों के बीच भी विरोधाभासी रूप से काफी सफल रही.
इसके विपरीत, आप पाएंगे कि ‘होमबाउंड’ के दर्शक ग्रामीण भारत के तीन गरीब, पढ़े-लिखे, स्मार्ट और महत्वाकांक्षी युवा किरदारों के संघर्ष से सहानुभूति रखते हैं. दर्शक इस बात को कबूल करते हैं कि यह ‘सिस्टम’ इन युवाओं को किस तरह धोखा देने के लिए ही बना है. तो अब हम क्या करें? यह ध्यान रहे कि ये तीनों युवा भारत की एक तिहाई आबादी, दलितों और मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं.
शिक्षा, आरक्षण, और सरकारी नौकरी समता और सम्मान दिलाने का लिए है, लेकिन हम इससे कितने दूर हैं यह मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंके जाने और इससे भी दुखद घटना, हरियाणा के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजीपी) वाई. पूरन कुमार की ‘आत्महत्या’ से साफ है. उनकी आईएएस पत्नी, 2001 की उनकी बैचमेट अमनीत पी. कुमार भी दलित हैं. उन्होंने एफआईआर दर्ज करवा कर उसमें आरोप लगाया है कि राज्य के डीजीपी और जिला एसपी उनके पति को प्रताड़ित करते रहते थे. स्थिति यह है कि अगर एक मुख्य न्यायाधीश, आइपीएस, और आईएएस अधिकारी को सम्मान और समता नहीं मिलती तो ज़ाहिर है कि हमारी व्यवस्थागत नाइंसाफियां और पूर्वाग्रह इतने गहरे और घुट्टी में धंसे हैं कि 75 वर्षों की आरक्षण व्यवस्था से भी दूर नहीं हुए हैं. इसलिए आरक्षण को वापस न लेकर जारी ही रखना होगा.
‘होमबाउंड’ के तीन दोस्त — चंदन कुमार (वाल्मीकि समाज के), मोहम्मद शोएब अली, और सुधा भारती (दलित) — पुलिस सिपाही की नौकरी के लिए कोशिश कर रहे हैं. इनकी भूमिका क्रमशः विशाल जेठवा, ईशान खट्टर और जाह्नवी कपूर ने निभाई है. इस कहानी ने मुझे बाबू जगजीवन राम से 1985 में हुई बातचीत की याद दिला दी, जब मैंने अगड़ी जातियों के पहले आरक्षण विरोधी आंदोलन के बारे में ‘इंडिया टुडे’ के लिए रिपोर्टिंग करते हुए उनका इंटरव्यू लिया था. उस आंदोलन ने मंडल कमीशन को फिर से चर्चा में ला दिया था. जगजीवन राम सत्ता में नहीं थे और उनके पास बात करने के लिए वक्त भी था. उन्होंने आरक्षण के पक्ष में सबसे जोरदार तर्क प्रस्तुत किए थे.
उन्होंने आगरा के अपने एक पुराने मित्र, अनुसूचित जाति (तब दलित शब्द चलन में नहीं था) के जूता उद्यमी की कहानी बताई थी. उनके यह दोस्त करोड़ों के मालिक, शानदार कोठी में रहने वाले, इंपोर्टेड कार में चलने वाले एक बड़े एक्सपोर्टर थे. फिर भी वे जगजीवन राम से विनती कर रहे थे कि वे उनके बेटे को उत्तर प्रदेश पुलिस में एएसआई की नौकरी लगवा दें. बाबूजी ने उनसे कहा कि आपके पास इतनी दौलत है, आप अपने बेटे को एक मामूली एएसआई क्यों बनाना चाहते हैं? उनका जवाब था : ‘मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं, कोई ब्राह्मण मेरे बेटे को इज्ज़त नहीं देग, लेकिन वह एक एएसआई बन गया तो ब्राह्मण समेत सारे जूनियर उसे सलाम करेंगे’. बाबूजी ने कहा कि आरक्षण ने इस तरह समता और शक्ति दी है.
‘होमबाउंड’ फिल्म में तस्वीर थोड़ी पेचीदा है. चंदन सामान्य कोटे से परीक्षा देना चाहता है. उसका कहना है कि अगर उसने यह ज़ाहिर कर दिया कि वह वाल्मीकि समाज से है, तो पुलिस महकमे में वे लोग उसे सफाई कर्मचारी बना देंगे. सुधा ग्रेजुएट बनने के बाद यूपीएससी की परीक्षा देना चाहती है और शोएब इतना स्मार्ट है कि घरेलू सामान की कंपनी में चपरासी की नौकरी करने के बावजूद बिक्री करवाने में अपने टाईधारी मैनेजरों को भी पीछे छोड़ देता है. उसका ‘बिग बॉस’ उसके काम से हैरान है और उसे ‘बेचू’ कहकर बुलाता है, जो कुछ भी बेचने में माहिर है. शोएब भी टाईधारी मैनेजर बनने वाला है कि तभी बॉस के घर में एक पार्टी में नशे में धुत लोग क्रिकेट मैच देखते हुए उसे अपमानित करते हैं. वह भी खुशी मना रहा होता है, लेकिन उसका मखौल उड़ाते हुए पूछा जाता है कि उसका दिल तो टूट गया होगा क्योंकि भारत ने तो पाकिस्तान को हरा दिया?
दलित और मुसलमान, दोनों को उनके पैतृक अतीत के बोझ के नीचे परस्पर विपरीत तरीके से कुचला जाता है. दलितों को पीढ़ियों से चले आ रहे अन्याय का बोझ उठाना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें प्रताड़ित करने वाली जातियों को खुद में बदलाव लाना चाहिए. इसी तरह, मुसलमानों को अपने मुगल/अफगान/तुर्क पूर्वजों और जिन्ना के कारण बहुसंख्य हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों और हुकूमत का हिसाब चुकाना पड़ता है. यह दोमुंहा हथियार चंदन, शोएब और सुधा और एक तिहाई भारत की तकदीर पर मिलकर वार करता है.
अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार ने जनकल्याण, लाभार्थी को सीधे लाभ पहुंचाने के जो कार्यक्रम चलाए हैं उनमें पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता. महत्वपूर्ण प्रतियोगिता परीक्षाएं, खासकर यूपीएससी की परीक्षाएं साफ-सुथरी हैं और उनमें मुसलमान उम्मीदवार अच्छी संख्या में सफल होते हैं, लेकिन मुसलमान शीर्ष राजनीतिक, संवैधानिक या प्रशासनिक पदों से बाहर हैं और सरकार के बाहर भी उनके लिए बड़ी चुनौतियां मौजूद हैं.
उन्हें सामाजिक अलगाव झेलना पड़ता है, रोज़गार या किराए का घर पाने में कठिनाई होती है (शोएब से हर जगह कहा जाता है कि पुलिस जांच करवाओ, अपने मां-बाप का आधार कार्ड लाओ). मुसलमानों से जुड़े चमड़े या जानवरों की खाल या कसाईखाना जैसे व्यवसायों पर व्यवस्था की ओर से अड़चनें डाली जाती हैं, जैसे उनकी मीट की दुकानों को त्योहारों पर हफ्तों तक मनमाने ढंग से बंद करवा दिया जाता है. आपने ऐप्स से जुड़े डिलीवरी ब्वाय, उबर कैब के ड्राइवर या ऐप्स के ज़रिए आने वाले प्लंबरों या मरम्मत करने वाले कारीगरों के रूप में ज़्यादातर मुस्लिम युवाओं को ही देखा होगा, लेकिन सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ चेतावनी पहले से जारी की जा चुकी है मानो वे आपके परिवार के लिए कोई खतरा हों. इसके साथ ‘लव जिहाद’ या धर्म परिवर्तन या जघन्य अपराधों से भी उन्हें जोड़ा जाता है.
जैसा कि आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले महीने विज्ञान भवन में अपने विस्तृत व्याख्यान में कहा, अच्छी बात यह है कि भारतीय मुसलमान अपनी नकारात्मक छवि को बदल रहे हैं. ऐसी एक छवि उनके बच्चों की संख्या को लेकर है. भागवत ने कहा कि पहले हिंदुओं में जन्मदर में कमी आई, अब मुस्लिम समुदाय भी इस मामले में उनकी बराबरी कर रहा है. भारत के मुसलमानों ने आधुनिक शिक्षा को अपनाया है, जो सर सैयद अहमद और अल्लामा इकबाल की विरासत है, लेकिन अफसोस की बात है कि पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन पढ़े-लिखे, महत्वाकांक्षी तथा रोजगार की योग्यता रखने वाले युवा मुसलमान अगर अपने ही ‘घेटो’ में रहने को मजबूर हों, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इससे ‘विकसित भारत’ का लक्ष्य नहीं हासिल होने वाला.
यह लेख किसी फिल्म की समीक्षा नहीं है, सिवा यह कहने के कि भारत ने इसे इस साल ऑस्कर अवार्ड के लिए नामजद किया है. यह महज़ एक हकीकत है कि इस फिल्म ने जनसांख्यिकी वाले पहलू को छुआ है जिसे हम अक्सर असंवेदनशील और उग्र मानते हैं, लेकिन संयोग से यह वास्तविक जीवन की दो कहानियों से मेल खाती है जिनमें भुक्तभोगी (यह शब्द मैं भारी मन से इस्तेमाल कर रहा हूं) वे हैं जिन्हें भारत एक नागरिक होने के नाते सबसे विशेषाधिकार प्राप्त पदों की पेशकश कर सकता है. मैं आपको भारत के पहले और एकमात्र दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की नियुक्ति के दिन ही किए गए उनके अपमान की याद दिलाना चाहूंगा. इस प्रवृत्ति की हम अनदेखी नहीं कर सकते, खासकर तब जब यह तीन में से एक भारतीय को प्रभावित करता हो.