“मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूँ लेकिन मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है. मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने में विश्वास रखता हूँ. मैं उन्हें स्पष्ट करना चाहता हूँ कि भारतीय संघ के प्रति देशभक्ति की केवल घोषणा मात्र से उन्हें मदद नहीं मिलेगी, व्यावहारिक प्रमाण भी उन्हें प्रस्तुत करना चाहिए.”
“मैं भारतीय मुसलमानों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि हाल ही में संपन्न अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन में उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की आक्रामकता की निंदा क्यों नहीं की? यह लोगों के मन में संदेह पैदा करता है. अब आपको एक साथ तैरना होगा या एक साथ डूबना होगा. एक ही नाव में, आप दो घोड़ों की सवारी नहीं कर सकते.”
“जो लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं उन्हें वहाँ जाना चाहिए और शांति से रहना चाहिए, लेकिन यहां के लोगों को भी शांति से रहना चाहिए और प्रगति के काम में योगदान देना चाहिए.”
ये सरदार वल्लभभाई पटेल के एक भाषण के कुछ अंश हैं जो उन्होंने छह जनवरी, 1948 को लखनऊ में दिया था.
महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘पटेल, ए लाइफ़’ में लिखते हैं, “लखनऊ एक ऐसा शहर था जहां कई लोग थे जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की वकालत की थी. शहर में वैसे मुसलमान भी थे जो कोई फ़ैसला नहीं ले सके थे और कट्टर हिंदुओं का भी घर था. सरदार ने यहां पहले समूह को व्यंग्यात्मक ढंग से, दूसरे समूह को कठोर शब्दों में और तीसरे समूह को स्पष्ट रूप से समझाया था.”
नवम्बर, 1946 के चौथे सप्ताह में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मेरठ में हुआ. राजमोहन गाँधी अपनी पुस्तक ‘पटेल, ए लाइफ’ में लिखते हैं, “इस सम्मेलन में सरदार ने पाकिस्तान की मांग करने वालों से कहा कि तुम जो भी करो, शांति और प्रेम के साथ करो और तुम सफल हो जाओगे, लेकिन तलवार का जवाब तलवार से दिया जाएगा.”
 
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महात्मा गांधी की चिट्ठी
नोआखाली और बिहार हिंसा की वारदात के एक महीने से भी कम समय के बाद में पटेल द्वारा दिए गए ये भाषण के कुछ अंश नेहरू को पसंद नहीं आए. गांधी जी उस समय नोआखाली में थे और नेहरू तथा आचार्य कृपलानी उनसे मिलने गये.
उस समय ‘तलवार का जवाब तलवार’ से देने की बात पर सरदार का मेरठ में दिया गया भाषण चर्चा में था. गांधीजी ने 30 दिसंबर 1946 को सरदार को एक पत्र लिखा, जो नेहरू के साथ उनको भेजा.
राजमोहन गांधी सरदार की बेटी मणिबहन पटेल की डायरी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि गांधीजी के पत्र के कारण वह पूरे दिन दुखी रहे थे. गांधीजी ने अपने पत्र में लिखा था, “आपके विरुद्ध कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं. यदि आप तलवार का बदला तलवार से देने वाला न्याय सिखाते हैं, और यदि यह सत्य है, तो यह हानिकारक है.”
पत्र मिलने के पांच दिन बाद यानी सात जनवरी को सरदार पटेल ने गांधीजी को जवाबी पत्र लिखा. सरदार ने लिखा, “सच बोलना मेरी आदत है. मेरे लंबे वाक्य को छोटा करके ‘तलवार का जवाब तलवार से’ देने के संदर्भ को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है.”
हालांकि कई बार ऐसा हुआ जब सरदार ने मुसलमानों की वफ़ादारी पर सवाल उठाए. 5 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में अपने भाषण में उन्होंने कहा, ”मुसलमान कहते हैं कि उनकी निष्ठा पर सवाल क्यों उठाया जाता है. मैं कहता हूं कि आप अपनी अंतरात्मा से क्यों नहीं पूछते?”
सरदार पटेल के ये भाषण प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भारत की एकता का निर्माण’ में शामिल हैं.
1978 में संसद में कांग्रेस विधानमंडल के उपनेता रहे रफ़ीक़ ज़कारिया ने अपनी किताब ‘सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान’ में लिखा है, ”देश के विभाजन के दौरान हिंदू शरणार्थियों की हालत देखकर सरदार के मन में हिंदू समर्थक रवैया भले देखा जा सकता है. लेकिन उनमें भारतीय मुसलमानों के साथ अन्याय करने की कोई प्रवृत्ति देखी नहीं जा सकती थी.”
 
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नेहरू की नाराज़गी
सरदार के भाषणों को लेकर उनके नेहरू से भी मतभेद थे. नेहरू कैंप में माना जाता था कि सांप्रदायिक सद्भावना के मामले में सरदार मुसलमानों के प्रति उदार नहीं थे.
जानकारों का कहना है कि सरदार के बयान को घटना, समय, स्थान, व्यक्ति और संदर्भ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और न ही उनके किसी वाक्य को मुस्लिम विरोधी करार दिया जाना चाहिए.
इतिहासकार और शोधकर्ता रिज़वान कादरी ने बीबीसी गुजराती से कहा, ”वे बिना सोचे-समझे नहीं बोलते थे. संदर्भों में देखें तो, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस धर्म ने देश को विभाजित किया, उसके अनुयायी देश के प्रति वफ़ादार रहेंगे.”
कई बार उनके द्वारा किये गये व्यंग्य या कटाक्ष भी विवादों का कारण बने.
ज़कारिया लिखते हैं, “सरदार ने एक बार कहा था कि भारत में केवल एक ही ‘राष्ट्रवादी मुस्लिम’ है और वह ‘नेहरू’ हैं. यह बात इतनी फैल गई कि गांधीजी को सरदार से कहना पड़ा कि ‘वह अपनी हाज़िर जवाबी को अपने विवेक पर हावी न होने दें.’”
 
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ऑपरेशन पोलो को लेकर आलोचना
हैदराबाद में स्थिति नियंत्रण में आने के बाद, सरदार ने वहां मुसलमानों को आश्वासन दिया गया कि जब तक वे भारत के प्रति वफ़ादार रहेंगे, उन्हें डरने की कोई बात नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार रहे ए.जी नूरानी ने लिखा है कि हैदराबाद में सेना के इस्तेमाल की कोई ज़रूरत नहीं थी. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द डिस्ट्रक्शन ऑफ़ हैदराबाद’ में लिखा, “सरदार के फ़ैसले के कारण हैदराबाद में मुसलमान मारे गए थे.” उन्होंने इसके लिए सुंदरलाल कमेटी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया है.
नूरानी लिखते हैं कि कन्हैया मुंशी कांग्रेस पार्टी में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंट’ थे. उल्लेखनीय है कि सरदार ने मुंशी को हैदराबाद में भारत सरकार का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था और वह सरदार के खास व्यक्ति माने जाते थे.
सरदार उस समय हैदराबाद को भारत का कैंसर मानते थे क्योंकि निज़ाम हैदराबाद को स्वतंत्र रखना चाहते थे. सरदार ने ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद में सैन्य अभियान चलाया. नेहरू और राजाजी ने सैन्य कार्रवाई का विरोध किया, लेकिन सरदार अड़े रहे.
रफ़ीक़ ज़करिया लिखते हैं, ”सरदार 7 अक्टूबर 1950 को हैदराबाद गए. उन्हें बताया गया कि लायक अली पुलिस से बचते हुए विमान से पाकिस्तान जा चुके हैं. यह ख़बर सुनकर हैदराबाद के मुसलमानों ने खुशी मनाई. लायक अली निज़ाम के अंतिम प्रधानमंत्री थे. इस संदर्भ में सरदार ने मुसलमानों से नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे संदेह है कि मुसलमान अपना भविष्य भारत से नहीं जोड़ रहे हैं.”
 
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जब सरदार बोले- ‘मुस्लिम लीग ने दंगों से सबक सीखा’
जब जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान की मांग पर सीधी कार्रवाई करने का दिन घोषित किया, तो इसका बंगाल में भीषण असर देखने को मिला.
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘राजाजी, ए लाइफ़’ में लिखते हैं, “बंगाल सरकार के प्रमुख एच.एस. सुहारावर्दी ने इस दिन छुट्टी की घोषणा की थी. उस दिन हत्या, बलात्कार, लूटपाट की होली खेली गई थी. पुलिस मूकदर्शक बनी रही. पहले दो दिनों तक हिंदुओं को पीटा गया. लेकिन फिर जवाबी हमला किया गया. पांच दिनों तक चले इस जानलेवा खेल में 5,000 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई और 15,000 लोग घायल हो गए.”
“सरदार पटेल ने 21 अगस्त, 1946 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को लिखे एक पत्र में कहा कि लीग ने सबक सीख लिया है, क्योंकि मैंने सुना है कि इसमें अधिक मुसलमान हताहत हुए हैं.”
नोआखाली के बाद बिहार में भी हिंसा हुई. तत्कालीन अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में नेहरू ने बंगाल और बिहार की निष्पक्ष जाँच के आदेश दिए थे. इसी बीच मुस्लिम लीग के एक सदस्य ने गांधी जी को लिखा कि बिहार में जांच में देरी के लिए सरदार पटेल ज़िम्मेदार हैं.
पहले गांधी जी ने सरदार को पत्र लिखा कि ऐसा लग रहा है कि आप जांच आयोग के ख़िलाफ़ हैं और बाद में पांच फरवरी, 1947 को दूसरा पत्र लिख कर कहा, ‘अगर आप जांच आयोग नहीं बिठाएंगे तो स्थिति भयावह हो जाएगी.’
सरदार ने गांधी जी को उत्तर दिया. 17 फरवरी को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, “किसने कहा कि मैं जांच आयोग के गठन में बाधा डाल रहा हूं. जांच रोकने में राज्यपाल का हाथ है और वायसराय भी ऐसा नहीं चाहते. वायसराय की सिफ़ारिश पर कलकत्ता में जांच चल रही है. लेकिन रिपोर्ट 12 महीने बाद आएगी. इतनी देर बाद जांच का क्या मतलब? यह अनावश्यक ख़र्च होगा, इससे कोई फायदा नहीं होगा.”
 
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मौलाना आज़ाद के आरोप
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ. पश्चिमी पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांतों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. पश्चिमी पंजाब के लाहौर, सियालकोट, गुजरांवाला और शेखपारा में भयानक जनसंहार हुए. इसका असर अमृतसर पर भी पड़ा. यह आग कलकत्ता में भी फैल गई.
गांधीजी ने कलकत्ता में शांति के प्रयास के लिए उपवास किया और जब वहां शांति स्थापित हुई तो दिल्ली में दंगे भड़क उठे. यहां पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को शरण दी जानी थी. 5 सितंबर, 1948 तक लगभग दो लाख हिंदू या सिख शरणार्थी दिल्ली आ चुके थे.
दिल्ली में मुसलमानों को निशाना बनाया गया.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अपनी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम में लिखते हैं, “दिल्ली में सिखों की एक दंगाई भीड़ ने मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिए. मुझे आश्चर्य हुआ कि अगर पश्चिमी पंजाब में हिंदुओं और सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए वहां के मुसलमान जिम्मेदार थे, तो दिल्ली में निर्दोष मुसलमानों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?”
“पीड़ितों की संख्या इतनी अधिक थी कि पुराने किले में उनके लिए एक राहत शिविर स्थापित करना पड़ा. गांधीजी मुझसे, सरदार पटेल और नेहरू से मामले पर विवरण देने के लिए कहते थे. सरदार का दृष्टिकोण अलग था. हम दोनों के बीच मतभेद बढ़े. एक तरफ मैं और जवाहरलाल थे. जबकि दूसरी तरफ सरदार थे. प्रशासन में दो गुट हो गए. लोग सरदार की ओर देखते थे क्योंकि वह देश के गृह मंत्री थे. उन्होंने ऐसा काम किया कि बहुसंख्यक गुट उनसे खुश था. अल्पसंख्यक गुट मुझसे और जवाहरलाल से उम्मीद कर रहा था.”
 
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मौलाना ने सरदार पर आरोप लगाया कि दिल्ली प्रशासन, जो सीधे सरदार पटेल के विभाग के तहत काम करता है, हिंसा पर अंकुश लगाने में विफल रहा है.
मौलाना लिखते हैं कि ‘जब दिल्ली में मुसलमान कुत्ते-बिल्लियों की तरह मर रहे थे, तब मैं, जवाहर और सरदार गांधीजी के साथ बैठे थे. जब जवाहरलाल ने दिल्ली में हिंसा को रोकने के लिए प्रशासन के काम करने के तरीके पर नाराजगी व्यक्त की, तो सरदार ने उनसे कहा कि मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं है. सरकार मुसलमानों की जान-माल बचाने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन और कुछ नहीं किया जा सकता.’
मौलाना लिखते हैं कि, ‘सरदार के जवाब से जवाहरलाल को सबसे ज्यादा झटका लगा. उन्होंने गांधी जी से कहा कि यदि सरदार पटेल के ऐसे विचार हैं तो मुझे उसमें कुछ कहना नहीं है.’
मौलाना ने लिखा, ”गांधी ने यह भी कहा था कि दिल्ली में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है और सरदार का गृह विभाग इसे नियंत्रित करने में विफल रहा है. 12 जनवरी, 1948 को गांधी ने हिंसा को रोकने के लिए उपवास का हथियार उठाने का फ़ैसला किया. सरदार ने गांधीजी को उपवास करने से रोकने की बहुत कोशिश की.”
“सरदार को अगली सुबह बॉम्बे और काठियावाड़ के लिए निकलना था. वह गांधीजी से कहने लगे कि वह बिना किसी कारण के उपवास कर रहे हैं. गांधीजी ने उत्तर दिया कि, ‘मैं चीन में नहीं रह रहा हूं, मैं दिल्ली में हूं. मेरी आंखें और कान अभी भी काम कर रहे हैं. यदि आप कह रहे हैं कि मुसलमानों की शिकायतें बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हैं, न तुम मुझे समझते हो, न मैं तुम्हें समझता हूं.’”
सरदार अपनी यात्रा पर निकल पड़े. वहीं दिल्ली में गांधीजी का अनशन तुड़वाने की कोशिशें शुरू हो गईं. शांति प्रयासों से संतुष्ट होकर गांधीजी ने 18 जनवरी को मौलाना से मौसम्बी का जूस पीकर अपना उपवास तोड़ा. उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि मुसलमानों के नष्ट किये गये धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण कराया जाये.
मौलाना के मुताबिक, ‘गांधी जी के इस रवैये से न केवल सरदार नाराज़ थे, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के कार्यकर्ता भी नाराज़ थे.’
हालांकि राजमोहन गांधी ने इसके उलट लिखा है कि जब गांधीजी ने अपना उपवास तोड़ा, तो सरदार ने उनका आभार व्यक्त करते हुए बम्बई से एक तार भेजा.
वरिष्ठ विश्लेषक और सरदार पटेल पर किताब लिख चुके उर्विश कोठारी कहते हैं, ”मौलाना ने कई आरोप लगाए लेकिन सरदार उनके लिए ज़िम्मेदार नहीं थे. उस समय ऐसी स्थिति थी. 1946-50 की अवधि को हाल की परिस्थिति से तुलना करते सरदार को मुस्लिम विरोधी या सांप्रदायिकतावादी नहीं कहा जा सकता है.”
 
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जब सरदार ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा रोकी
पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों को पंजाब से होकर जाना पड़ता था. वहां मुस्लिम विरोधी माहौल चरम पर था.
पाकिस्तान के तत्कालीन मंत्री ग़ज़नफ़र अली ख़ान ने सरदार पटेल को एक टेलीग्राम भेजा कि पाकिस्तान आने वाले लोगों का राजपुरा और लुधियाना के बीच पटियाला और बठिंडा के पास नरसंहार किया जा रहा है.
26 अगस्त, 1947 को सरदार ने पटियाला के महाराजा को टेलीग्राम कर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए क़दम उठाने और विश्वास का माहौल बनाने का अनुरोध किया. दंगे न रुकने पर सरदार 30 सितम्बर को खुद अमृतसर पहुँचे और वहाँ एक बैठक की.
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ”उन्होंने सभा में कहा आज स्थिति यह हो गई है कि लाहौर में कोई हिंदू या सिख अकेला नहीं चल सकता, कोई मुसलमान नहीं रह सकता अमृतसर में…इस हालत ने दुनिया में हमारा नाम खराब कर दिया है.”
राजमोहन गांधी लिखते हैं, “सरदार के इन व्यक्तिगत प्रयासों के कारण उसके बाद पाकिस्तान जाने वाली एक भी ट्रेन पर हमला नहीं किया गया.”
 
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जब जिन्ना ने सरदार पर निशाना साधा
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार ए. जी नूरानी ने एक बार द हिंदू में लेख लिखा था.
इस लेख में उन्होंने लिखा था, “नवंबर 1945 में, एक शीर्ष कांग्रेस नेता ने बॉम्बे के मरीन ड्राइव के पास चोपाटी बीच पर एक स्विमिंग पूल का उद्घाटन किया. इस स्विमिंग पूल का नाम प्राणसुखलाल मफतलाल हिंदू स्विमिंग पूल था. इस स्विमिंग पूल के दरवाजे मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बंद कर दिए गए थे. यह नेता कौन था? इस पूल का उद्घाटन करने वाले व्यक्ति का नाम था-वल्लभभाई पटेल. पूल के बाहर एक पट्टिका पर इस साहसिक कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करते हुए देखा जा सकता है.”
पहले तो इसका किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने 18 नवंबर, 1945 को दिल्ली से एआईसीसी सत्र में पटेल द्वारा दिए गए भाषण का जवाब देते हुए कहा, “हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई और भारत एक है जैसे नारे सरदार पटेल के मुख में शोभा नहीं देते. क्या पटेल ने बंबई में केवल हिंदू स्विमिंग पूल का उद्घाटन नहीं किया था? जिसका कुछ युवकों ने विरोध किया. स्विमिंग पूल के साथ-साथ मुसलमान इतने भाग्यशाली नहीं थे कि समुद्र के पानी का उपयोग कर सकें.”
इसके लिए नूरानी ने वहीद अहमद की किताब द नेशन्स वॉइस का हवाला दिया. उन्होंने यह भी लिखा, ‘उस समय न तो नेहरू और न ही राजाजी ने उन्हें रोकने की कोशिश की.’
उर्विश कोठारी कहते हैं, “अगर कोई सरदार को मुस्लिम विरोधी बताकर उनका राजनीतिकरण करता है, तो वह सरदार का अपमान कर रहा है.”
नूरानी लिखते हैं कि सरदार अपने विरोधियों से निपटने में बहुत सख्त थे, उनके पास छुपे हुए आरएसएस कनेक्शन थे.
नूरानी लिखते हैं, “22 अक्टूबर, 1946 को भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल ने ब्रिटेन के राजा को लिखी एक रिपोर्ट में लिखा था कि पटेल स्पष्ट रूप से एक सांप्रदायिक हैं.”
इन सभी आरोपों के बीच सरदार एक को संप्रभु भारत के निर्माता के रूप में जाना जाता है. ज़कारिया लिखते हैं, “देशभर में फैली 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण वास्तव में एक बहुत बड़ा काम था. यह चमत्कार करके सरदार ने अपने लिए भारत के बिस्मार्क की उपाधि अर्जित की. इसमें कश्मीर शामिल नहीं था. उसकी ज़िम्मेदारी सरदार के हाथ में नहीं थी. आज भी कश्मीर हमारी राजनीति के लिए एक समस्या के तौर पर देखा जाता है.”
सरदार स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए बनाए गए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को जारी रखने या पुनर्गठन के विरोध में थे.
सरदार ने संविधान सभा में अनुसूचित जाति को छोड़कर सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने का समर्थन किया.
संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर अन्य सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने का निर्णय लिया.
 
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आरएसएस के प्रति नरमी दिखाने का आरोप
नेहरू को यह भी शिकायत थी कि दिल्ली हिंसा में आरएसएस कार्यकर्ता शामिल थे, फिर भी पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ और दंगा करने वाले सिख गिरोहों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की. हालाँकि, बाद में नेहरू ने स्वीकार किया कि पुलिस ने धीरे-धीरे उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की थी.
20 जनवरी को गांधी जी की प्रार्थना सभा में जोरदार विस्फोट हुआ. गांधी जी बच गये. उसी दिन पश्चिम पंजाब के मदनलाल पाहवा नामक एक व्यक्ति ने बम फेंका. मदनलाल तो पकड़ लिया गया लेकिन बाकी लोग भाग निकले. पुलिस को मदनलाल से जानकारी मिली कि गांधीजी की हत्या की साजिश रची जा रही है.
सरदार ने गांधीजी को सुरक्षा देने की बात की लेकिन गांधीजी ने इसका विरोध किया. 30 जनवरी को सरदार मणिबहन के साथ गांधीजी से मिलने पहुंचे. नेहरू और सरदार के बीच मतभेदों पर चर्चा हुई. गांधीजी ने सरदार से कहा कि वे इस विषय पर नेहरू से भी बात करेंगे. उनका मानना था कि वर्तमान परिस्थितियों में दोनों के बीच मतभेद देश हित में नहीं है.
तीन मिनट में मणिबहन और सरदार अपने घर पहुँच गये. वहां पता चला कि किसी ने बापू को गोली मार दी है.
गांधी जी की हत्या के बाद सरदार पर आरोप लगने लगे. तीन फरवरी को स्टेट्समैन के एक स्तंभकार ने लिखा कि महात्मा गांधी को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहने के लिए सरदार को गृह मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए.
समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने भी सरदार की आलोचना की और कहा कि जिस विभाग को चलाना तीस साल के युवा के लिए भी मुश्किल हो, उसे 74 साल का आदमी कैसे चला सकता है?
राजमोहन गांधी लिखते हैं, “सरदार ने अपना इस्तीफा लिखा लेकिन भेजा नहीं. नेहरू ने सरदार को एक भावनात्मक पत्र लिखा. उन्होंने लिखा कि हमारे बीच मतभेदों को नमक और मिर्च लगाकर पेश किया जा रहा है. इस बुरे खेल को रोकना ज़रूरी है. बापू की मौत के बाद जो आपातकाल पैदा हुआ है इसका मुकाबला करने के लिए हमें मित्र या सहयोगी के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए.”
सरदार ने भी उत्साहपूर्वक अपना उत्तर दिया. सरदार ने लिखा, “बापू की भी राय थी कि हम परस्पर जुड़े हुए हैं. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आपके नेतृत्व में मैं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हूं.”
राजमोहन गांधी लिखते हैं, “गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस और हिंदू महासभा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हालांकि, सरदार और नेहरू के उनके बारे में अलग-अलग विचार थे. नेहरू आरएसएस और हिंदू महासभा को फ़ासीवादी मानते थे जबकि सरदार उन्हें देशभक्त मानते थे. नेहरू का मानना था कि बापू की हत्या एक बड़ी साज़िश का हिस्सा थी. इसके लिए अभियान आरएसएस ने चलाया था. हालांकि, सरदार इससे सहमत नहीं थे.”
 
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17 जुलाई 1948 को सरदार ने प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. इससे पहले हिंदू महासभा के नेता और नेहरू सरकार में मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पत्र लिखकर कुछ मामलों पर विचार करने को कहा था.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लिखा, “गांधीजी की हत्या में एक छोटा समूह शामिल था. जिनके ख़िलाफ़ साजिश में शामिल होने का कोई सबूत नहीं है, उन्हें तुरंत रिहा किया जाना चाहिए. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस मामले में आरएसएस का कोई हाथ है.”
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शिकायत की कि हर मोर्चे पर हिंदुओं को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है लेकिन मुसलमानों की ऐसी (संदिग्ध) गतिविधियों के ख़िलाफ़ कोई भी कुछ करने की स्थिति में नहीं है.
मुख्यमंत्रियों की बैठक समाप्त होने के बाद सरदार ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा, “आरएसएस और हिंदू महासभा के ख़िलाफ़ मामला अदालत में विचाराधीन है. आरएसएस की गतिविधियां सरकार के ख़िलाफ़ खतरनाक थीं. सुरक्षा अधिनियम के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को छह महीने से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता.”
आप किसी संगठन को सत्ता के बल पर नहीं कुचल सकते. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग चोर और लुटेरे नहीं हैं. वे देशभक्त हैं. वे अपने देश से प्यार करते हैं लेकिन उनके विचार गुमराह हैं.
सरदार ने लखनऊ में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कांग्रेस में शामिल होने की अपील की थी और उन्होंने यह भी कहा था कि वे अकेले हिंदुओं के ठेकेदार नहीं हैं.
उन्होंने कहा, “कुछ सत्ता पर काबिज कांग्रेसी सोचते हैं कि वे अपनी ताक़त के बल पर आरएसएस को कुचल सकते हैं. आप किसी संगठन को सत्ता के जोर के बल पर नहीं कुचल सकते. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग चोर और लुटेरे नहीं हैं. वे देशभक्त हैं. वे अपने देश से प्यार करते हैं लेकिन उनके विचार गुमराह हैं.”
लेखक हिम्मतभाई पटेल अपनी पुस्तक चक्रवर्ती संन्यासी सरदार पटेल में लिखते हैं कि सरदार का यह भाषण रेडियो पर भी प्रसारित किया गया था. आरएसएस ने इसका फायदा उठाया और इसे सर्वत्र प्रचारित किया.
बीबीसी गुजराती से बातचीत में उर्विश कोठारी कहते हैं, “सरदार ने आरएसएस और हिंदू महासभा को कांग्रेस में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, इसका मतलब यह नहीं था कि उनका उनके प्रति अधिक स्नेह था. वह चाहते थे कि भारत अब आज़ाद है और सभी को इसका समर्थन करना चाहिए. सब मिलकर इसे आगे बढ़ायें. अगर आम्बेडकर सरकार में हैं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं तो उनके अनुसार संघ को साथ लेने में कोई दिक्कत नहीं थी.”
 
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क्या चाहते थे पटेल?
मौलाना आज़ाद लिखते हैं कि सरदार का दिमाग किस दिशा में काम कर रहा था, इसका एक और उदाहरण देखिए. “सरदार को लगा कि मुसलमानों पर हमलों के पीछे कारण और तर्क देना ज़रूरी है.”
वह लिखते हैं, “सरदार ने दिल्ली में एक मुस्लिम घर में पाए गए हथियारों की एक प्रदर्शनी आयोजित की थी. उनका सिद्धांत था कि मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों पर हमला करने के लिए हथियार एकत्र किए थे. अगर हिंदुओं और सिखों ने विरोध नहीं किया होता, तो मुसलमानों ने उन्हें नष्ट कर दिया होता”
“कैबिनेट बैठक के दौरान इन हथियारों का प्रदर्शन किया गया. लॉर्ड माउंटबेटन ने कुछ चाकू उठाए और कहा, मेरे लिए यह पचाना मुश्किल है कि कोई इन हथियारों से पूरी दिल्ली पर कब्जा कर सकता है.”
हालाँकि, ऐसे आरोपों के विपरीत, सरदार को मुसलमानों की भी चिंता थी. राजमोहन गांधी लिखते हैं, “जब राजपूत और सिख सैनिकों ने मुसलमानों की रक्षा करने के बजाय उन पर हमला किया, तो दिल्ली में सरदार ने सिख और राजपूत रेजिमेंट के स्थान पर मद्रास रेजिमेंट को तैनात कर दिया.”
“वह दक्षिण दिल्ली में निज़ामुद्दीन दरगाह के बारे में चिंतित हो गए. कुछ डरे हुए मुसलमानों ने दरगाह में शरण ली. सरदार दरगाह के दौरे पर गए. वहां गए और प्रभारी अधिकारी को उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने का निर्देश दिया.”
उर्विश कोठारी कहते हैं, ”सरदार पर उस दौरान बहुत सारी जिम्मेदारियां थीं. उनमें हिन्दू-मुस्लिम एकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक दृष्टिकोण था. उनके मन में मुसलमानों के प्रति अलगाव की भावना थी लेकिन वे मुसलमानों को ख़त्म करने की विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे.”

