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    मोदी का भारत Vs इंदिरा का इंडिया: राजनीति, कूटनीति, और अर्थव्यवस्थाका रिपोर्ट कार्ड

    Jodhpur HeraldBy Jodhpur HeraldJuly 28, 2025

    जून 2024 में जिस दिन नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार शपथ ग्रहण की, उसी दिन यह तय हो गया था कि इस साल वे प्रधानमंत्री पद पर लगातार सबसे लंबे समय तक बने रहने वाले दूसरे नेता बन जाएंगे और इस मामले में इंदिरा गांधी (24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 तक) से आगे निकल जाएंगे. उसी दिन यह भी तय हो गया था कि 2025 में इस समय मोदी और इंदिरा के बीच तुलनाएं शुरू हो जाएंगी. इस मामले में मैं सबसे पहला या सबसे पहलों में शामिल व्यक्ति बनने की कोशिश कर रहा हूं.

    सबसे पहले तो हमें यह देखना है कि दोनों ने जब सत्ता की बागडोर संभाली थी तब व्यापक राजनीतिक वास्तविकताएं क्या थीं और उनकी सत्ता के सामने क्या-क्या चुनौतियां थीं. इसके बाद हम इन चार मामलों में उनके कामकाज का आकलन करेंगे— राजनीति, रणनीति तथा विदेश मामले, अर्थव्यवस्था, और राष्ट्रवाद.

    श्रीमती गांधी और मोदी ने बिलकुल अलग-अलग परिस्थितियों में सत्ता संभाली थी. इन दोनों ने अपनी अलग-अलग राजनीतिक पूंजी के साथ शुरुआत की. 1966 में श्रीमती गांधी चुनाव जीतकर सत्ता में नहीं आई थीं. लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद उन्हें सुविधाजनक विकल्प के रूप में चुना गया था. शुरू में संसद से सहमी-सहमी दिखकर उन्होंने कोई अच्छी शुरुआत नहीं की थी, और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने उन्हें “गूंगी गुड़िया” कहकर खारिज कर दिया था. उन्हें विरासत में टूटी हुई अर्थव्यवस्था मिली थी. 1965 में आर्थिक वृद्धि दर शून्य से नीचे, -2.6 फीसदी थी. युद्ध, सूखा, खाद्य संकट तथा राजनीतिक अस्थिरता की तिहरी मार; 19 महीनों के अंदर दो पदासीन प्रधानमंत्रियों के निधन ने भारत को कमजोर कर दिया था.

    लेकिन 2014 में मोदी के लिए परिस्थितियां इससे बिलकुल उलटी थीं. वे 30 वर्षों के बाद बहुमत से चुनाव जीत कर आए थे और अपनी पार्टी के द्वारा चुने गए उम्मीदवार थे. अर्थव्यवस्था इससे पिछले 15 साल से औसतन 6.5 फीसदी की मजबूत दर से आगे बढ़ रही थी. उन्होंने शांतिपूर्ण, नियोजित, अपेक्षित सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया से गद्दी संभाली. सत्ता की शुरुआत उन्होंने विशाल राजनीतिक पूंजी के साथ तो की ही, शुरू में उनकी परेशानियों का स्तर श्रीमती गांधी की परेशानियों के स्तर से काफी नीचा था.

    यह भी उल्लेखनीय है कि सत्ता का 11वां वर्ष श्रीमती गांधी ने चुनाव जीतकर नहीं बल्कि संसद में अपने भारी बहुमत (518 सीटों में से 352 सीटों के) के बूते संविधान का उल्लंघन करके और विपक्ष को जेल में डालकर हासिल किया था. मोदी ने अपना तीसरा कार्यकाल चुनाव लड़कर हासिल किया, बेशक वे बहुमत हासिल करने से चूक गए. उन्हें 11 वर्षों में न तो अपनी पार्टी के अंदर और न विपक्ष की ओर से किसी चुनौती का सामना करना पड़ा. वैश्विक स्थिति भी ट्रंप की दूसरी बार वापसी को छोड़ कुल मिलाकर स्थिर और अनुकूल रही.

    अब हम उन चार पहलुओं के आधार पर तुलना करेंगे, जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है.

    घरेलू राजनीति के मामले में पहला सवाल यह है कि भारत का सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री कौन रहा, मोदी या इंदिरा गांधी? बाकी गिनती में नहीं आते.

    श्रीमती गांधी ने अपनी राजनीति एक विचारधारा (समाजवादी रुझान वाली) के बूते चलाई— शुरू में मजबूरी के कारण, और उसके बाद अपनी पसंद से. मोदी का जन्म भगवा राजनीति में हुआ और वे उस रंग में पूरे रंगे रहे. श्रीमती गांधी की ताकत समय के साथ फर्श और अर्श को छूती रही. मोदी की ताकत 2024 में 240 सीटें जीतने के बाद के कुछ महीनों को छोड़ निरंतर स्थिर रही.

    240 सीटों के बावजूद उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से एक भी चुनौती नहीं है. उन्होंने सबको हाशिये पर डाल दिया है, राज्यों के क्षत्रपों की जगह अनजान और कमजोर चेहरों को स्थापित कर दिया है. इस मामले में उनमें और श्रीमती गांधी में कोई फर्क नहीं है. यानी, बेरहमी के मामले में दोनों एक जैसे हैं. विपक्ष और बोलने की आजादी से निबटने के मामले में इमरजेंसी की बराबरी करना (खुदा न करे कोई इसकी कोशिश भी करे) मुश्किल होगा.

    संस्थाओं को सम्मान देने के मामले में होड़ तीखी है और दोनों बराबरी पर नजर आते हैं. सुविधा के लिए हम केवल एक संस्था को लें— राष्ट्रपति पद को. श्रीमती गांधी ने वी.वी. गिरि के मामले में राष्ट्रपति को मोम का पुतला समान बना दिया—कमजोर, दिखावटी, सिर्फ बताई गई जगह पर दस्तखत करने वाला. मोदी युग के राष्ट्रपति भी ऐसे ही पुतलों जैसे रहे.

    मोदी “छप्पन इंच के सीने” के साथ ताकतवर होते गए. और श्रीमती गांधी को भी राजनीतिक शुचिता से अनजान उस दौर में अपने मंत्रिमंडल में एकमात्र मर्द कहा जाता था. दोनों ने इन विशेषणों को जी कर दिखाया. श्रीमती गांधी के मामले में हमने देखा कि 1977-84 के बीच जब वे सत्ता से बाहर थीं और जब वापस आईं तब उन्होंने एक अलग तरह का राजनीतिक कौशल दिखाया. लेकिन 11 साल वाली तुलना में यह दौर शामिल नहीं है.

    एक अहम सवाल यह है कि भारत की एकजुटता किसने बेहतर तरीके से बनाए रखी. श्रीमती गांधी ने मिजोरम और नगालैंड में बगावत का बेरहमी से मुक़ाबला किया. इस मामले में उनकी परेशानियां 1980 के बाद शुरू हुईं. मोदी ने कश्मीर घाटी नाटकीय बदलाव लाया, और उत्तर-पूर्व में स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश जारी है. लेकिन मणिपुर में नाकामी का अंत नहीं हो रहा. एक बड़ी सकारात्मक बात यह है कि भारत के मध्य एवं पूर्वी हिस्से में माओवाद का लगभग सफाया कर दिया गया है.

    यह सिलसिला रणनीतिक समेत विदेश मामलों में भी जारी दिखता है. श्रीमती गांधी के 11 साल उस दौर में बीते जब दुनिया में कोल्ड वॉर अपने सबसे उफान पर था. उन्होंने सोवियत संघ के साथ एक संधि की जिसमें आपसी सुरक्षा की शर्त बड़ी कुशलता से शामिल की गई; उन्होंने चीन की ओर निक्सन-किसिंजर के झुकाव का सामना किया और भारत के लिए उपलब्ध छोटी-छोटी गुंजाइशों का कुशलता के साथ उपयोग किया. मोदी ने ‘सबके साथ दोस्ती’ के भाव के साथ शुरुआत की लेकिन उनकी व्यक्ति केंद्रित कूटनीति को पाकिस्तान-चीन से जुड़ी हकीकतों का जल्दी ही सामना करना पड़ा. श्रीमती गांधी ने भारत की परमाणु शक्ति का ऐलान 1974 (पोकरण परीक्षण) में कर दिया लेकिन पाकिस्तान की परमाणु धमकी का जवाब देने में मोदी को 2019 (बालाकोट) और 2025 (ऑपरेशन सिंदूर) तक इंतजार करना पड़ा. यह उनकी झोली में एक बड़ी उपलब्धि है.

    पड़ोस से रिश्ते जब खट्टे होने लगे तब भारत ने अमेरिका/पश्चिमी देशों की ओर हाथ बढ़ाया और तभी यूक्रेन रूपी जटिलता पेश आ गई. इसने बहुपक्षीय मेल को बढ़ावा दिया. इस बीच ट्रंप ने सब कुछ उलटपलट दिया है. पाकिस्तान 1971 की तरह अब भी अमेरिका और चीन के साथ खेल रहा है. और जैसा कि तब श्रीमती गांधी ने किया था, आज मोदी को भी विकल्पों की तलाश करनी पड़ रही है. लेकिन सोवियत संघ तो कब का लुप्त हो चुका है. मोदी की दुविधा 1971 में श्रीमती गांधी की दुविधा से ज्यादा गहरी है. लेकिन भारत आज कहीं ज्यादा ताकतवर है.

    अर्थव्यवस्था आज उस स्थिति में है जिसमें हम कई विरोधाभासों की अपेक्षा कर सकते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि कई समानताएं भी दिखती हैं. मोदी इस उम्मीद के साथ सत्ता में आए थे कि वे श्रीमती गांधी के ठीक विपरीत साबित होंगे, कि वे इस बात पर ज़ोर देंगे कि व्यवसाय में पड़ना सरकार का व्यवसाय नहीं है. लेकिन कई बुनियादी रुझानों के मामले में मोदी श्रीमती गांधी की नकल करते दिख रहे हैं. उदाहरण के लिए वितरणवादी राजनीति, जिसका आकार उन्होंने विशाल कर दिया है लेकिन उसमें कार्यकुशलता बेशक ज्यादा बरती जा रही है. निजीकरण की जगह सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति अटूट प्रतिबद्धता जारी है. इस साल भी, पीएसयू में 5 ट्रिलियन रुपये का नया निवेश करने का बजट रखा गया है. इसके बरअक्स रक्षा बजट को देखिए, जो 6.81 ट्रिलियन रुपये का है. मोदी ने कुछ महत्वपूर्ण सुधार लागू किए हैं, मसलन डिजिटल भुगतान, जीएसटी और दिवालिया होने के नियम. इनके अलावा खनन से लेकर मैनुफैक्चरिंग और बिजली तक के मामले में कई सुधार प्रतीक्षित हैं.

    अपने प्रथम और दूसरे कार्यकालों में मोदी ने कुछ साहसिक सुधारों की कोशिश की थी, मसलन भूमि अधिग्रहण, कृषि तथा श्रम सुधारों के कानून, सिविल सेवाओं में बाहर से प्रवेश की व्यवस्था आदि. लेकिन इन सबसे हाथ झाड़ लिया गया है. जब तक ट्रंप सत्ता में नहीं आए थे तब तक मोदी 6-6.5 फीसदी की वृद्धि दर से संतुष्ट दिख रहे थे, जिसे हम आर्थिक वृद्धि की ‘हिंदू दर’ कहने का जोखिम उठा सकते हैं. इसका आधार यह है: हिंदू पहचान और ध्रुवीकरण की राजनीति 6-6.5 फीसदी की वृद्धि दर पर भी चुनाव में बिना जोखिम के जीत दिलाती रह सकती है. लेकिन ट्रंप की ज़ोर-जबरदस्ती और फ्री ट्रेड समझौतों ने इस आरामतलबी में खलल डाल दिया. अब देखना यह है कि बंदूक की नोंक पर नये सुधार किए जाते हैं या नहीं.

    और अंत में, राष्ट्रवाद का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने के मामले में सबसे आगे रहे इन दो नेताओं की तुलना हम किस तरह करेंगे? श्रीमती गांधी के लिए पृष्ठभूमि 1962 से लेकर 1971 के बीच हुई लड़ाइयां बनीं. भारत तब तक ‘जय जवान, जय किसान’ वाला देश बन चुका था. बांग्लादेश मुक्ति, हरित क्रांति, और गुटनिरपेक्ष जगत से मिली तारीफ़ों ने उनके राष्ट्रवाद को परवान चढ़ाया. मोदी का राष्ट्रवाद कहीं ज्यादा ज्यादा बलवान, ‘जय जवान’ मार्का था. आतंकवादी हमले के मुक़ाबले में सैन्य कार्रवाई के वादे के नतीजों को लेकर हम पहले से कोई फैसला नहीं कर सकते और यह इतिहासकारों के भरोसे ही छोड़ सकते हैं कि वे इस तरह की रणनीतिक संभावनाओं पर चिंतन करें.

    मोदी के दौर में एक नया, हिंदूवादी राष्ट्रवाद उभरा है. इसने हिंदुओं की एक बड़ी जमात को इस तरह एकजुट किया है कि मोदी की गद्दी सुरक्षित रह सकती है, लेकिन इसने दरार भी पैदा किए हैं. भारत के दुश्मनों को इन दरारों को और फैलाने का लोभ हो सकता है. हम देख चुके हैं कि पाकिस्तान ने खासकर ऑपरेशन सिंदूर के दौरान न केवल मुसलमानों बल्कि सिखों को किस तरह बरगलाने की कोशिश की.

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